कहानी भोपाल के दो डॉक्टरों की है। ये भोपाल के दो अस्पतालों में कोरोना वार्ड के इंचार्ज हैं। पहले का नाम है डॉक्टर सौरव सहगल। ये एम्स में हैं। दूसरे हैं डॉक्टर कृष्ण गोपाल सिंह। ये चिरायु में हैं। चिरायु यहां का एक प्राइवेट हॉस्पिटल है। दोनों की कहानी एक सी है- मुश्किलों की, मंसूबों की और मिलकर जीत ही जाने की। एक का बच्चा पांच महीने का है, दूसरे का तीन माह का। बच्चे की हंसी-ठिठोली भी मोबाइल पर ही देख रहे हैं। परिवार कहीं और है, खुद अस्पताल में रह रहे हैं। लेकिन अपने कोरोना मरीजाें के लिए हंस रहे, गा रहे और नाच तक रहे हैं। बस इसलिए कि वे कहीं अस्पताल से भाग न जाएं, लड़ें न, बस इत्मिनान से रहें। दोनों की कहानी उन्हीं की जुबानी...
डॉ. सौरभ सहगल, एम्स के कोविड वार्ड इंचार्ज
चुनौतियां
दो अप्रैल को मेरे पास कोरोनावायरस का पहला केस आया था। पहले दिन से ही तीन चुनौतियां मेरे सामने थीं। पहली- मरीज की जान बचाना। दूसरी- अपनी टीम को बचाना और तीसरी- अपनी टीम को मोटिवेटेड रखना। अपनी टीम को सेफ रखने के लिए हमने सबसे पहले पर्सनल इक्विपमेंट्स को जरूरी किया। पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) किट पहनकर ही कोई भी इमरजेंसी वॉर्ड के अंदर जा सकता है। वॉर्डबॉय से लेकर डॉक्टर तक हर किसी के लिए पीपीई किट कंपलसरी हैं। कोरोना का केस आने के बाद पूरा स्टाफ बहुत डरा हुआ था। अमेरिका-इटली से मौत की खबरें आ रहीं थीं। इसलिए रेजिडेंट्स से लेकर नर्स तक, हर किसी के मन में डर था।
हमने उन्हें बताया कि, यदि आप पीपीई किट के साथ वार्ड में जाएंगे तो आपको कोरोनावायरस का संक्रमण होने की आशंका केवल 0.4% ही होगी। उन्हें यह भी बताया कि, हम लोग अच्छा खाते-पीते हैं इसलिए हमारी इम्युनिटी मजबूत है। हम संक्रमण के जल्दी शिकार नहीं होंगे। तीसरी और सबसे अहम बात थी हमारी उम्र। हमारा अधिकांश स्टाफ 40 साल से कम उम्र का है। यंग एज में इस वायरस का बहुत ज्यादा खतरा नहीं होता। यदि संक्रमण होता भी है तो बॉडी रिकवर जल्दी कर लेती है। ये सब बताकर टीम को इस बीमारी से लड़ने के लिए तैयार किया। हमने उन्हें बताया कि हम भी सैनिक ही हैं। जैसे देश के जवान बॉर्डर पर पाकिस्तान को मात देते हैं, वैसे ही हमें कोरोना को मात देना है।
वार्ड के बाहर क्या रोल होता है?
सुबह 8 बजे से हमारा काम शुरू हो जाता है। ब्रेकफास्ट करके टीम के साथ डिस्कस करते हैं। यह जानते हैं कि किस मरीज का हाल क्या है। रात में जो डॉक्टर ड्यूटी पर होता है उससे रिव्यू लेते हैं। इसके बाद प्लानिंग होती है कि आज क्या करना है। मीटिंग के बाद ओटी ड्रेस पहनते हैं, फिर उसके ऊपर पीपीई पहनकर इमरजेंसी वॉर्ड में जाते हैं। वॉर्ड से बाहर आने के बाद ड्रेस चेंज करते हैं। नहाते हैं और फिर लंच करते हैं। रात में दोबारा पीपीई किट पहनकर वॉर्ड में जाते हैं। यदि बीच में कभी इमरजेंसी आ जाती है तो तुरंत वॉर्ड में जाना होता है। किट पहनने के दौरान शुरू-शुरू में घबराहट भी होती थी क्योंकि हम पूरी तरह से पैक हो जाते हैं। अब तो इसकी आदत हो गई है। पहले 12 से 15 मिनट किट पहनने में लगते थे। अब 5 से 7 मिनट लगता है।
वार्ड के अंदर क्या रोल होता है?
सबसे बड़ी चुनौती वार्ड के अंदर ही होती है। यहां हम पूरी तरह से किट से कवर होते हैं। हमारे पास फोन या अन्य कोई दूसरा गैरजरूरी सामान नहीं होता। तीन से चार घंटे हमें वॉर्ड में रहना होता है। इस दौरान न टॉयलेट जाते हैं, न कुछ खा सकते हैं। पानी भी नहीं पी सकते। यहां मरीजों का इलाज करने के साथ ही उन्हें व्यस्त रखने की जिम्मेदारी भी हमारी ही होती है। ताकि वे घबराएं न और भागने की कोशिश न करें। कोई मरीज परिजन से मिल नहीं सकता। किसी परिजन से बात नहीं कर सकता। एक ही जगह उन्हें कई दिनों तक ठहरना होता है। ऐसे में उनके लिए भी एक-एक मिनट बिताना मुश्किल हो जाता है।
अस्पताल में हम सिर्फ इलाज ही नहीं कर रहे, मरीजों के संदेश भी इधर से उधर पहुंचा रहे हैं। हर मरीज के घरवालों से हम दिन में कम से कम तीन बार बात करते हैं। उन्हें मरीज का हाल बताते हैं और उनके जो जरूरी संदेश होते हैं वो मरीज तक पहुंचाते हैं। अधिकतर मरीजों के घरवाले पूछते हैं कि, सर हमारा पेशेंट ठीक तो हो जाएगा न? मरीज भी यही सवाल करते हैं, तो हम उनको बताते हैं कि अधिकतर लोग ठीक हो रहे हैं आप भी हो जाएंगे। कई बार एग्जाम्पल देते हैं कि फलां व्यक्ति वेंटीलेटर पर था। बहुत क्रिटिकल कंडीशन में था, फिर भी रिकवरी कर ली। आप भी कर लेंगे।
आपके घर के क्या हाल है?
जिन डॉक्टर्स की ड्यूटी होती है, उनके ठहरने का इंतजाम हॉस्पिटल में ही है। मैं पत्नी और बच्चों को उनके नाना के घर भेज चुका हूं। मेरा एक बच्चा आठ साल का है और दूसरा तो अभी तीन महीने का ही है। वार्ड में रहने के दौरान किसी से बात नहीं हो पाती, लेकिन बाहर आकर जब फ्री होता हूं, तब घर बात कर लेता हूं। घरवाले टेंशन में रहते हैं।
उन्हें लगता है कि मुझे कुछ हो न जाए, लेकिन उन्हें समझाता हूं कि सब ठीक है और मुझे कुछ नहीं होगा। अभी हमारे खाने-पीने का भी शेड्यूल बदल गया है। मसलन अब दिन में पांच से छह बार गरम पानी में बीटाडीन डालकर गरारे करते हैं। जो लोग अंडे खाते हैं, वो ब्रेकफास्ट में अंडे ही खा रहे हैं। बाकी लोग हाई प्रोटीन वाली चीजें खा रहे हैं, क्योंकि इम्युनिटी मजबूत रखना जरूरी है। कुछ लोग विटामिन सी भी ले रहे हैं। बाकी डाइट नॉर्मल ही है।
डॉ.कृष्णा सिंह, चिरायु हॉस्पिटल के कोविड वार्ड इंचार्ज
आपके सामने चुनौतियां क्या हैं?
सबसे पहले तो ये बता दूं कि अभी मैं अपने ही अस्पताल में क्वारेंटाइन हूं। 14 दिन के लिए। मैं 2 से 16 अप्रैल तक कोरोना मरीजों के बीच था। मेरे लिए सबसे पहली चुनौती अपनी टीम को मोटिवेट करने की थी। क्योंकि हर कोई डरा हुआ था। 2 अप्रैल को वॉर्डमें काम शुरू करने के पहले ही मैंने और मेरी टीम ने सोच लिया था कि हमे इसे मिशन की तरह लेना है। सब चीजें भूलकर सिर्फ एक ही बात पर फोकस रखना है कि कैसे भी हम ये लड़ाई जीतेंगे।
15 दिनों की ड्यूटी के दौरान मेरा तय शेड्यूल नहीं रहा। खाना-पीना, सोना-उठना सब बदल गया था क्योंकि 15 दिनों के लिए कंसल्टेंट के तौर पर मेरा कोई रिप्लेसमेंट नहीं था। जब नया मरीज आ जाए या फिर मौजूदा मरीज को कोई प्रॉब्लम हो तो तुरंत देखना होता था। शायद इसी का नतीजा रहा कि हमारे यहां मोर्टेलिटी रेट शून्य रहा, जबकि दूसरी जगह यह 4 प्रतिशत से ज्यादा तक है।
वार्ड के बाहर क्या रोल रहा?
यदि कोई इमरजेंसी नहीं आई तो काम सुबह 8 बजे से शुरू होता है। सबसे पहले टीम के साथ कंसल्ट करते थे। नाइट ड्यूटी करने वाले साथी डॉक्टर से रीव्यू लेते थे फिर प्लानिंग करते थे कि किस मरीज का ट्रीटमेंट आज कैसे करना है। 9 बजे के करीब मैं कोरोना वार्ड में जाता था, फिर एक से डेढ़ बजे ही बाहर आ पाता था। इस बीच खाना, पीना, टॉयलेट कुछ नहीं। बाहर आने के बाद पीपीई किट उतारकर सबसे पहले नहाता था, क्योंकि संक्रमण का बहुत डर होता था। नहाने के बाद लंच करता था। कई दफा ऐसा हुआ कि लंच हो ही नहीं सका, क्योंकि इमरजेंसी आ गई। शाम को किट पहनकर फिर राउंड पर जाते थे। एक दिन में कम से कम 8 घंटे किट पहनकर ही निकल रहे थे। मैं बीते कई दिनों से हॉस्पिटल में ही दूसरे फ्लोर पर रह रहा हूं। तीसरे और चौथे फ्लोर पर हमारे मरीज हैं।
वार्ड के अंदर क्या रोल होता था?
वार्ड के अंदर सबसे बड़ी चुनौती मरीजों को ठीक करने के साथ ही उन्हें रोककर रखने की थी। उन्हें व्यस्त रखने की थी। जो मरीज ठीक हो गए हैं, उन्हें भी 14 दिनों तक रोककर रखना ही है। ऐसे में मरीज रुकना नहीं चाहते। कोई कहता था मेरे घर में कोई नहीं है। कोई कहता था मुझे यहां का खाना अच्छा नहीं लगता। एक मरीज ने एक दिन झगड़ा भी कर लिया। फिर हमने उसे प्यार से समझाया कि, हम तुम्हारे लिए ही यहां हैं। अगले दिन उसने सॉरी बोला।
हमने वार्ड के अंदर ही कैरम, ताश जैसे कुछ गेम भी शुरू करवाए। ताकि मरीज व्यस्त रहें। एक-दूसरे से उनका परिचय कराया, ताकि वे आपस में बात कर सकें। हम उन्हें उनके घर के हाल सुनाया करते थे। हंसी-मजाक होता था। कभी गाना गाने का कॉम्पीटिशन करवा देते थे, तो कभी डांस करने का। कुल मिलाकर किसी न किसी चीज में मरीजों को व्यस्त रखना था।
आपके घर के क्या हाल हैं?
व्यस्तता के चलते बहुत बार तो घरवालों का फोन ही नहीं उठा पाता। ओटी में रहने के दौरान तो फोन पास भी नहीं होता है। ऐसे में कई बार घर के लोग चिढ़ भी जाते हैं। चिंता भी जताते हैं। मेरा बच्चा अभी सिर्फ पांच महीने का है। मैं पिछले डेढ़ महीने से घर नहीं गया हूं। कोरोना का केस भोपाल में आने के पहले ही हमने संभावित मरीजों की जांच शुरू कर दी थी। तब से ही घर वालों से मैंने संपर्क खत्म कर दिया था। बच्चे की पहली मुस्कान, पहला कदम और पहली बार उसका पापा बोलना... इन चीजों को बीते डेढ़ महीने में मैंने मिस कर दिया।
हमारे हॉस्पिटल में एक भी मौत नहीं हुई, इसकी एक बड़ी वजह टीम का पॉजिटिव होना है। हमारा नर्सिंग स्टाफ, हाउस कीपिंग, अटेंडर हर कोई पॉजिटिव था। रात में किसी पेशेंट के आने पर वार्ड खुलवाना होता था तो अटेंडर को रात में ही जगना पड़ता था। वो चाहता तो बोल सकता था कि मेरी ड्यूटी के घंटे खत्म हो गए हैं। लेकिन कभी किसी अटेंडर ने ऐसा कहा नहीं। इसी का नतीजा है कि हम सब मिलकर काफी हद तक कोरोना को रोक पाए हैं।
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